नुकसानकारक तरीके से जीना

जब मैं तीसरी कक्षा में था, मैंने एक दोस्त से पूछा कि क्या वह मेरे यहाँ सो सकता है। वह अगले दिन वापस आया और कहा, "मेरे माता-पिता ने ‘मना’ किया है, क्योंकि तुम्हारे माता-पिता शराबी हैं।" यही वह पल था जिसमें मुझे सदमा लगा: मेरा परिवार सामान्य नहीं है। मेरे माता-पिता शराबी हैं। मेरे माता-पिता के जीवन का हर पहलू शराब पीने के इर्द-गिर्द घूमता है; यही सब मुझे पता था।

यह सच्चाई और भी कड़वी हो गई जब एक दिन मेरी बहन और मैं किसी दूसरे परिवार के साथ रात के खाने पर गए। वहाँ न तो किसी ने शराब पी और न ही कोई झगड़ा हुआ। उन्होंने साथ में कई गेम्स खेले और मस्ती की। हमें यह समझने में देर नहीं लगी कि हम अपने घर से दूर ज्यादा सुरक्षित थे, इसलिए हम जितना हो सके उतना घर से दूर रहने की कोशिश करने लगे। मेरे चाचा का घर वहाँ नजदीक ही था इसलिए जब कभी हमारे माता-पिता शराब पीते और उनका झगड़ा नियंत्रण से बाहर हो जाता था, तो रात को हम उनके घर चले जाया करते थे। अक्सर जब हम सुबह वापस आते तो हमारे घर के हालात बड़े दयनीय होते थे, टूटा-फूटा फर्नीचर, चारों और बिखरा हुआ खाना, टूटे बर्तन आदि रात की कहानी बयाँ कर देते थे।

मैं अक्सर घर के स्टोररूम में किसी छज्जे के नीचे छुप जाता था, जो मेरे बेडरूम के कोने में था, लेकिन वह भी पूरी तरह मुझे पनाह नहीं दे सकता था। वहाँ भी मैं नीचे बेडरूम में माता-पिता के गाली-गलौच और मारपीट की आवाज़ें सुन सकता था। किसी भी बच्चे को वह न सुनने को मिले जो मुझे सुनना पड़ा या वह ना देखना पड़े जो मुझे देखना पड़ा। मेरे पिता को नहीं पता था, लेकिन मैंने उन्हें माँ को इतनी ज़ोर से धक्का देते देखा कि आखिरकार एक हड्डी टूटने के कारण उनको अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।

क्रोधित शराबी न होने पर मेरे पिता उदास शराबी होते थे। कभी-कभी वह घर आ आते थे और मुझे बिस्तर से उठा देते और मुझे अपने जीवन के संकटों की कहानी सुनाते बेशक, मैं एक छोटा बच्चा था, इसलिए मैं बस वहीं बैठ जाता और अपने पिता को रोते हुए देखता। मैं अवसन्न था। मेरे दिमाग में बस यही उलझन रहती कि, "मुझे नहीं पता कि इस हालात में क्या करना है।"

मैं ज़िंदगी के उस मोड़ पर आ गया था, जहां मुझे हैरानी होती थी कि क्या जीवन सच में जीने लायक है। मैं अपनी खिड़की के बाहर बड़े पेड़ को घूरता था और उस पर लटक जाने की कल्पना करता था। मैं इतनी हद तक सोच लेता था कि प्लाईवुड के एक पतले टुकड़े से अपना मकबरा भी बना लेता था। कभी-कभी मुझे हैरानी होती थी कि क्या यह अभी भी उस कोने में कहीं दबा पड़ा है जहां मैंने इसे कुछ ढीले कालीन के नीचे छुपा कर रख दिया था।

किसी भी बच्चे को वह न सुनने को मिले जो मुझे सुनना पड़ा था या वह न देखना पड़े जो मुझे देखना पड़ा।

मेरा वहाँ से निकलने का सहारा मेरा मजबूत शैक्षणिक प्रदर्शन बना जिसने मुझे विश्वविद्यालय में दाखिल होने लायक बनाया। मैंने वहां सचमुच अच्छा प्रदर्शन किया और विश्वविद्यालय के अध्यक्ष की सूची में अपनी जगह बना ली। जब मेरे पिताजी ने इसके बारे में सुना, तो उन्होंने पहली और आखिरी बार मुझसे कहा कि उन्हें मुझ पर गर्व है। ऐसा सिर्फ दूसरी बार हुआ था जब मुझे लगा कि वास्तव में उनका ध्यान मेरे जीवन की घटनाओं पर गया है।

मैं खुद कभी व्यसनी (शराबी) नहीं बना, लेकिन शराब का प्रभाव मेरे साथ ही रहा। ऐसे बिखरे हुए परिवार में बड़ा हुआ तो मेरे पास कोई उदाहरण नहीं था जो बता सके की परिवार कैसा होना चाहिए। जब मैं एक पति और पिता बना, तो मैंने खुद को पूरी तरह से अजनबी दुनिया में भटका हुआ पाया, जो एक सामान्य जीवन को जानने, समझने और बनाने की कोशिश कर था।

कहीं न कहीं भावनात्मक कमजोरी रह गई थी। मैंने हमेशा अपने माता-पिता को शराब के साथ ही नकारात्मक भावनाओं से लड़ते देखा था और उन्होंने कभी भी अपने बच्चों की भावनाओं की परवाह नहीं की। अगर हम में से कोई भी रोना शुरू कर देता, तो मेरे पिता कहते, "रोना बंद करते हो या मैं सच में तुम्हें रोने देने के लिए दो चार चपत लगाऊं।" मुझे याद है कि मैंने अपनी माँ को अपने विश्वविद्यालय के वर्षों के दौरान गले लगाया था। वह तख्ते जैसी कठोर और जड़ हो गई थी। वह नहीं जानती थी की लाड़-प्यार से कैसे पेश आना है और मैं अभी यह सीख रहा था।

कई वर्षों तक मैं घोर निराशा के साथ जीता रहा। मैं पीछे मुड़कर देखता और सोचता कि काश मैं किसी दूसरे परिवार में पला-बढ़ा होता। "मैं बेचारा" की यादें मेरे दिमाग में चलती रहती थी: मुझे इस तरह से बचपन क्यों मिला, क्यों ऐसे हालात में बड़ा हुआ? मैं कल्पना करता था कि मेरी ज़िंदगी कैसे अलग हो सकती थी। मेरे अंदर यह कड़वाहट और गुस्सा भरता जा रहा था खासकर अपने पिता के प्रति; यह सब मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।

मुझे पता था कि या मुझे माफ़ करना सीखना होगा वरना ये आक्रोश मुझ पर हावी हो जाएगा।

कुछ वर्ष बाद विश्वविद्यालय में, किसी ने मुझसे कहा कि मुझे अपने पिता को माफ़ करना चाहिए और उनसे प्यार करने का कोई तरीका ढूँढना चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास दो विकल्प थे। मैं या तो कड़वाहट और गुस्से से घुट सकता था और जो मुझे तोड़े जा रहा था जिसका परिणाम मैं जानता था कि यह मेरे या मेरे रिश्तों के लिए अच्छा नहीं होगा। या फिर मैं उसके अच्छे और बुरे को स्वीकार कर सकता था, जिस तरह मैं बड़ा हुआ और जैसे मेरे माता-पिता कमियों से भरे हुए थे। मुझे पता था कि मुझे माफ़ करना सीखना होगा वरना ये आक्रोश मुझ पर हावी हो जाएगा।

मैं अंततः उस मोड़ पर आ गया जहाँ मैंने उन्हें कहा कि, "पिताजी, मैं आपसे प्यार करता हूँ," वो भी बिना किसी किंतु-परंतु या शिकायत के। इससे उनके साथ मेरा रिश्ता फिर से जीवंत हो गया। वह और निर्मल हो गए। एक दिन, मैंने अपने पिताजी को एक पत्र लिखा। मैंने सच में जानबूझकर वह सब सोचा और लिखा, हर वो अच्छी बात लिखी जो मैं उनके बारे में सोच सकता था। उन्होंने कभी जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें वास्तव में क्या और कैसे लिखना है की समझ थी। लेकिन मेरी माँ ने जवाब दिया। उन्होंने लिखा कि, “तुम्हारे पिता ने तुम्हारा पत्र पढ़ा और फिर वह रो पड़े थे। मुझे लगता है कि उन्हें इसकी जरूरत थी।” वह क्षण मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। 1989 में जिस समय उनकी मृत्यु हुई, उस समय तक हमारे संबंध काफी बदल चुके थे।

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फोटो साभार Yogendra Singh

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